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व्याख्यान

मेरा जीवन तथा ध्येय

स्वामी विवेकानंद


मेरा जीवन तथा ध्येय

(२७ जनवरी, १९०० ई० को पेंसाडेना के शेक्सपियर क्लब में दिया हुआ भाषण)

देवियों और सज्जनों ! आज प्रात:काल का विषय वेदांत दर्शन था, किंतु रोचक होते हुए भी यह विषय बहुत विशाल और कुछ रूखा सा है।

अभी-अभी तुम्हारे अध्यक्ष महोदय एवं अन्य सज्जनों ने मुझसे अनुरोध किया है कि मैं अपने कार्य के बारे में उनसे कुछ निवेदन करूँ। यह तुम लोगों में से कुछ को भले ही रुचिकर जान पड़े, किंतु मेरे लिए वैसा नहीं है। सच पूछो यो मैं स्वयं समझ नहीं पाता कि उसका वर्णन किस प्रकार करूँ, क्योंकि अपने जीवन में इस विषय पर बोलने का यह मेरा पहला ही अवसर है।

अपने स्वल्प ढंग से, जो कुछ भी मैं करता रहा हूँ, उसको समझाने के लिए मैं तुमको कल्पना द्वारा भारत ले चलूँगा। विषय के सभी ब्योरों और सूक्ष्म विवरणों में जाने का समय नहीं है, और एक विदेशी जाति की सभी जटिलताओं को इस अल्प समय में समझ पाना तुम्हारे लिए संभव है। इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि मैं कम से कम भारत की लघु रूपरेखा तुम्हारे सम्मुख प्रस्तुत करने का प्रयास करूँगा।

भारत खंडहरों में ढेर हुई पड़ी एक विशाल इमारत के सदृश्य है। पहले देखने पर आशा की कोई किरण नहीं मिलती। वह एक विगत और भग्नावशिष्ट राष्ट्र है। पर थोड़ा और रुको, रुककर देखो, जान पड़ेगा कि इनके परे कुछ और भी है। सत्य यह है कि वह तत्त्व, वह आदर्श, मनुष्य जिसकी बाह्य व्यंजना मात्र है, जब तक कुंठित अथवा नष्ट-भ्रष्ट नहीं हो जाता, तब तक मनुष्य भी निर्जीव नहीं होता, तब उसके लिए आशा भी अस्त नहीं होती। यदि तुम्हारे कोट को कोई बीसों बार चुरा ले, तो क्या उससे तुम्हारा अस्तित्व भी शेष हो जाएगा ? तुम नवीन कोट बनवा लोगे-कोट तुम्हारे अनिवार्य अंग नहीं। सारांश यह कि यदि किसी धनी व्यक्ति की चोरी हो जाय, तो उसकी जीवन शक्ति का अंत नहीं हो जाता,उसे मृत्यु नहीं कहा जा सकता। मनुष्य तो जीता ही रहेगा।

इस सिद्धांत के आधार पर खड़े होकर आओ, हम अवलोकन करें और देखें अब भारत राजनीतिक शक्ति नहीं आज वह दासत्ता में बँधी हुई एक जाति है। अपने ही प्रशासन में भारतीयों की कोई आवाज़ नहीं, उनका कोई स्थान नहीं वे है केवल तीस करोड़ गुलाम - और कुछ नहीं ! भारतवासी की औसत आय डेढ़ रुपया प्रतिमास है। अधिकांश जन-समुदाय की जीवन-चर्या उपवासों की कहानी है, और ज़रा सी आय कम होने पर लाखों कल-कवलित हो जाते हैं। छोटे से अकाल का अर्थ है मृत्यु। इसलिए, जब मेरी दृष्टि उस ओर जाती है, तो मुझे दिखायी पड़ता है नाश, असाध्य नाश।

पर हमें यह भी विदित है कि हिंदू जाति ने कभी धनको श्रेय नहीं माना। धन उन्हें खूब प्राप्त हुआ, दूसरे राष्ट्रों से कहीं अधिक धन उन्हें मिला, पर हिंदू जाति ने धनको कभी श्रेय नहीं माना। युगों तक भारत शक्तिशाली बना रहा, पर तो भी शक्ति उसका श्रेय नहीं बनी, कभी उसने अपनी शक्ति का उपयोग अपने देश के बाहर किसी पर विजय प्राप्त करने में नहीं किया। वह अपनी सीमाओं से संतुष्ट रहा इसलिए कभी भी उसने किसी से युद्ध नहीं किया, उसने कभी भी साम्राज्यवादी गौरव को महत्व नहीं दिया। धन और शक्ति इस जाति के आदर्श कभी न बन सके।

तो फिर ? उसका मार्ग उचित था। अथवा अनुचित - यह प्रश्न प्रस्तुत नहीं है, वरन बात यह है कि यही एक राष्ट्र है, मानव-वंशों में एक ऐसी जाति है, जिसने श्रद्धापूर्वक सदैव यही विश्वास किया कि यह जीवन वास्तविक नहीं। सत्य तो ईश्वर है और इसलिए दुख और सुख और में उसको पकड़े रहें। अपने अध:पतन के बीच भी उसने धर्म को प्रथम स्थान दिया है। हिंदू का खाना धार्मिक, उसके विवाहादि धार्मिक होते हैं।

क्या तुमने अन्यत्र भी ऐसा देश देखा है ? यदि वहाँ एक डाकुओं के गिरोह की जरूरत होगी, तो उसका एक धार्मिक तत्व गढ़कर उसका प्रचार करेगा, उसकी कुछ खोखली सी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि रचेगा और फिर उद्घोष करेगा कि परमात्मा तक पहुँचने का यही सबसे सुस्पष्ट और शीघ्रगामी मार्ग है। तभी लोग उसके अनुचर बनेंगे अन्यथा नहीं। इसका एक ही कारण है और वह यह है कि इस जाति की सजीवता, इस देश का ध्येय धर्म है, और क्योंकि धर्म पर अभी आघात नहीं हुआ, अत: यह जाति जीवित है।

रोम की ओर देखो। रोम का ध्येय था साम्राज्य-लिप्सा शक्ति-विस्तार। और ज्यों ही उस पर आघात हुआ नहीं कि रोम छिन्न-भिन्न हो गया, विलीन हो गया। यूनानी की प्रेरणा थी बुद्धि। ज्यों ही उस पर आघात हुआ नहीं कि यूनान की इतिहास हो गयी। और वर्तमान युग में स्पेन इत्यादि वर्तमान देशों का भी यही हाल हुआ है। हर एक राष्ट्र जीवित रहता है- चाहे जो संकट क्यों न आए। पर ज्यों ही वह ध्येय नष्ट हुआ कि राष्ट्र भी ढह जाता है। भारत की वह सजीवता अभी भी आक्रांत नहीं हुई है। उन्होंने उसका त्याग नहीं किया है,वह आज भी बलशाली है- अंधविश्वासों के बावजूद भी। वहाँ भयानक अंधविश्वास हैं, उनमें से कुछ अत्यंत जघन्य एवं घृणास्पद-चिंता न करो उनकी। राष्ट्रीय जीवन-धारा-जाति का ध्येय अभी भी जीवित है।

भारतीय राष्ट्र कभी बलशाली, दूसरों को पराजित करनेवाला राष्ट्र नहीं बनेगा- कभी भी राजनीतिक शक्ति नहीं बन सकेगा ; ऐसा शक्ति बनना उसका व्यवसाय ही नहीं - राष्ट्रों की संगीत- संगति में भारत में इस प्रकार का स्वर कभी दे ही नहीं सकेगा। पर आखिर भारत का स्वर होगा क्या ? वह स्वर होगा केवल, ईश्वर का। भारत उससे कठोर मृत्यु की चिपटा हुआ है। इसीलिए वहाँ अभी आशा है।

अत: इस विश्लेषण के उपरांत यह निष्कर्ष निकलता है कि ये तमाम विभीषिकाएँ, सारे दैन्य-दारिद्रय और दु:ख विशेष महत्व के नहीं - भारत-पुरुष अभी भी जीवित है, और इसलिए अभी आशा है।

वहाँ सारे देश में तो तुमको धार्मिक क्रियाशीलता का बाहुल्य दिखायी पड़ेगा। मुझे ऐसा एक भी वर्ष स्मरण नहीं, जब कि भारत में अनेक नवीन संप्रदाय उत्पन्न न हुए हों। जितनी ही उद्दाम धारा होगी, उतने ही उसमें भंवर और चक्र उत्पन्न होंगे -यह स्वाभाविक है। इन संप्रदायों को क्षय का सूचक नहीं समझा जा सकता,वे जीवन के चिह्न हैं। होने दो इन संप्रदायों में वृद्धि इतनी वृद्धि कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति ही एक संप्रदाय हो जाय, हर एक व्यक्ति। इस विषय को लेकर कलह करने की आवश्यकता ही क्या है ?

अब तुम अपने देश को ही लो। (किसी आलोचना की दृष्टि से नहीं) यहाँ के सामाजिक कानून, यहाँ की राजनीति संस्थाएँ, यहाँ की हर एक चीज का निर्माण इसी दृष्टि से हुआ है कि लौकिक यात्रा सरलतापूर्वक संपन्न हो जाय। जब तक वह जीवित है खूब सुखपूर्वक जीवन-यापन करे। अपने राजमार्गों की ओर देखो, कितने स्वच्छ हैं वे सब ! तुम्हारे सौंदर्यशाली नगर ! और इसके अतिरिक्त वे तमाम साधन, जिनसे धन को निरंतर द्विगुणित किया जाता है। जीवन के सुखोपभोग करने के कितने ही रास्ते ! पर यदि तुम्हारे देश में कोई व्यक्ति इस वृक्ष के नीचे बैठ जाए और कहने लगे कि मैं तो यहीं पर आसन मारकर ध्यान लगाऊँगा, काम नहीं करूँगा, काम नहीं करूँगा, तो उसे कारागृह जाना होगा। देखा तुमने ? उसके लिए जीवन में कोई अवसर नहीं। मनुष्य तभी इस समाज में रह सकता है, जब कि वह समाज की पाँत में एकरस होकर काम किया करे। प्रस्तुत जीवन में आनंदोपभोग की इस घुड़दौड़ में हर एक आदमी को शामिल होना पड़ना पड़ता है, अन्यथा वह मर जाता है।

अब हम जरा भारत के और चलें। वहाँ यदि कोई व्यक्ति कहे कि मैं उस पर्वत की चोटी पर जाकर बैठूँगा और अपने शेष जीवन भर अपनी नाक की नोंक को देखते रहना चाहता हूँ, तो हर आदमी यही करता है, 'जाओ, शुभमस्तु ! ' उसे कुछ कहने की जरूरत नहीं। किसने उसे कपड़ा ला दिया और वह संतुष्ट हो गया। पर यदि कोई व्यक्ति आकर कहे कि 'देखो, मैं इस जिंदगी के के कुछ ऐशो-आराम लूटना चाहता हूँ; तो शायद उसके लिए सब द्वार बंद ही मिलेंगे।

मेरा कहना है कि दोनों देशों की धारणाएँ भ्रमात्मक हैं। मुझे कोई कारण नहीं दिखता है कि कोई व्यक्ति यहाँ आसन लगाकर त्राटक बाँधे तब तक क्यों न बैठा रहे, जब तक कि उसकी इच्छा हो। क्यों वह भी वही करता रहे, जो अधिकांश जन समुदाय किया करता है ? मुझे तो कोई उचित कारण नहीं दिखायी देता। उसी प्रकार मैं यह समझ नहीं पाता कि भारत में क्यों मानव इस जीवन की सामग्रियाँ न पाए, धनोपार्जन न करें ? लेकिन, तुम जानते हो, वहाँ से करोड़ों को इसके विरुद्ध दृष्टिकोण की स्वीकार करने के लिए आंतकित कर विवश किया जाता है। वहाँ के ऋषियों की यह निरंकुशता है ! यह निरंकुशता है महात्माओं की, यह निरंकुशता है अध्यात्मवादियों की, यह निरंकुशता है बुद्धिवादियों की, यह निरंकुशता है ज्ञानियों की निरंकुशता, याद रखो, अज्ञानियों की निरंकुशता से कहीं अधिक प्रबल होती है। जब पंडित और ज्ञानवन अपने मतों को औरों पर लादना प्रारंभ कर देते हैं, तो वे बाधाओं और बंधनों को रचने के ऐसे लाखों उपाय सोच लेते हैं, जिनको तोड़ने की शक्ति अज्ञानियों में नहीं होती।

मैं अब यह कहना चाहता हूँ कि इसे एक कदम रोक दिया जाय। लाखों-करोड़ों का होम करके एक बड़ा आध्यात्मिक दिग्गज पैदा किया जाने का कोई फायदा नहीं है। यदि हम ऐसा समाज निर्माण करें जिसमें एक ऐसा आध्यात्मिक दिग्गज भी हो और सारे अन्य लोग भी सुखी हों, तो वह ठीक है। पर अगर करोड़ों को पीसकर एक ऐसा दिग्गज बनाया गया, तो यह अन्याय है। अधिक उचित तो यह होगा कि सारे संसार के परित्राण के लिए एक व्यक्ति कष्ट झेले।

किसी राष्ट्र मे तुमको कुछ कार्य करना है, तो उसी राष्ट्र की विधियों को अपनाना होगा। हर आदमी को उसकी भाषा में बताना होगा। अगर तुमको अमेरिका या इंग्लैंड में धर्म का उपदेश देना है, तो तुमको राजनीतिक विधियों के माध्यम से काम करना होगा संस्थाएँ बनानी होंगी, समितियाँ गढ़नी होंगी, वोट देने की व्यवस्था करनी होगी, बैलेट के डिब्बे बनाने होंगे, सभापति चुनना होगा इत्यादि। क्योंकि पाश्चात्य जातियों की यही विधि और यही भाषा है। पर यहाँ भारत में यदि तुमको राजनीति की ही बात करनी है, तो धर्म की भाषा को माध्यम बनाना होगा। तुमको इस प्रकार कुछ कहना होगा 'जो आदमी प्रतिदिन सवेरे अपना घर साफ करता है, उसे इतना पुण्य प्राप्त होता है, उसे मरने पर स्वर्ग मिलता है, वह भगवान में लीन हो जाता है। 'जब तक तुम इस प्रकार उनसे न कहो, वे तुम्हारी बात समझेंगे ही नहीं। यह प्रश्न केवल भाषा का है। बात जो की जाती है, वह तो एक ही है। हर जाति के साथ यही बात है परंतु प्रत्येक जाति के हृदय को स्पर्श करने के लिए तुमको उसी की भाषा में बोलना पड़ेगा। और यह ठीक भी है। हमें उसमें बुरा न मानना चाहिए।

जिस संप्रदाय का मैं हूँ, उसे संन्यासी की संज्ञा दी जाती है। इस शब्द का अर्थ है- 'विरक्त'-जिसने संसार छोड़ दिया हो, यह संप्रदाय बहुत बहुत प्राचीन है। गौतम बुद्ध जो ईसा ५६० वर्ष पूर्व आविभूर्त हुए, वे भी इसी संप्रदाय में थे। वे इसके सुधारक मात्र भी थे। इतना प्राचीन है वह ! संसार के प्राचीनतम ग्रंथ वेद में भी इसका उल्लेख है। प्राचीन भारत का यह नियम था कि प्रत्येक पुरुष और स्त्री अपने जीवन की संध्या के निकट सामाजिक जीवन को त्यागकर केवल अपने मोक्ष और परमात्मा के चिंतन में संलग्न रहे। यह सब उस महान घटना का स्वागत करने की तैयारी है, जिसे मृत्यु कहते हैं। इसलिए उस प्राचीन युग में वृद्धजन संन्यासी हो जाया करते थे। बाद में युवकों ने भी संसार त्यागना आरंभ किया युवकों में शक्ति - बाहुल्य रहता है, इसलिए वे एक वृक्ष के नीचे बैठकर सदा-सर्वदा अपनी मृत्यु के चिंतन में ही ध्यान लगाए न रह सके, वे यहाँ -वहाँ जाकर उपदेश देने और नए-नए संप्रदायों का निर्माण करने लगे। इसी प्रकार युवा बुद्ध ने वह महान सुधार आरंभ किया। यदि वे जरा - जर्जरित होते, तो वे उस नासाग्र पर दृष्टि रखते और शांतिपूर्वक मर जाते।

यह संप्रदाय कोई धर्म-संघ-चर्च नहीं है और न इसके अनुयायी पुरोहित होते हैं। पुरोहितों और संन्यासियों में मौलिक भेद है। भारत के अन्य व्यवसायों की भाँति पुरोहिती भी सामाजिक जीवन का पैतृक व्यवसाय है। पुरोहित का पुत्र उसी प्रकार पुरोहित बन जाता है, जिस प्रकार बढ़ई का पुत्र बढई अथवा लोहार का बेटा लोहार। पुरोहित को विवाह- सूत्र में बांधना पड़ता है। हिंदू का मत है कि पत्नी के बिना पुरुष अधूरा है। अविवाहित पुरुष को धार्मिक कृत्य करने का अधिकार नहीं।

संन्यासियों के पास संपत्ति नहीं होती, वे विवाह नहीं करते। उनके ऊपर कोई समाज-व्यवस्था नहीं। एकमात्र बंधन जो उन पर व्यापकता है, वह है गुरु और शिष्य का आपसी संबंध और कुछ नहीं। और ये भारत की अपनी निजी विशेषता है। गुरु कोई ऐसा व्यक्ति नहीं, जो बस कहीं से आकर मुझे शिक्षा दे देता है और उसके बदले में मैं उसे कुछ धन देता हूँ और बात खत्म हो जाती है। भारत में यह गुरु शिष्य संबंध वैसी ही प्रथा है, जिसे पुत्र को गोद लेना। गुरु पिता से भी बढ़कर है और मैं सचमुच गुरु का पुत्र हूँ-हर तरह से उनका पुत्र। पिता से भी बढ़कर उनकी आज्ञा का अनुचर हूँ। उनसे बढ़कर वे मेरे सम्मान्य हैं और वह इसलिए की जहाँ मेरे पिता ने मुझे केवल यह शरीर मात्र दिया, मेरे गुरु ने मुझे मेरी मुक्ति का मार्ग प्रदर्शित किया और इसलिए वे पिता से बढ़कर हैं। मेरा अपने गुरु के प्रति यह सम्मान-जीवन व्यापी होता है, मेरा प्रेम चिरजीवी होता है। बस एकमात्र यही संबंध है, जो बच रहता है। मैं इसी प्रकार अपने शिष्यों को ग्रहण करता हूँ। कभी कभी तो गुरु एकदम नवयुवक होता है और शिष्य कहीं अधिक बूढ़ा। पर चिंता नहीं, बूढ़ा पुत्र बनता है और मुझे 'पिता' शब्द से संबोधन करता है और मुझे भी उसे पुत्र अथवा पुत्री कहकर पुकारना पड़ता है।

एक समय की बात है कि मुझे एक वृद्ध शिक्षक मिले वे बिल्कुल विचित्र थे। उन महाशय को बौद्धिक पांडित्य में कुछ चाव न था, कदाचित ही वे पुस्तकें देखते या उनका मनन करते। पर जब वे कम उम्र के ही थे, तभी से उनके मन में सत्य सीधा साक्षात्कार कर लेने की बड़ी उग्र आकांक्षा समा गयी। पहले-पहले उन्होंने अपने ही धर्म का प्रयोग किया। फिर उनके मन में आया कि नहीं, और भी धर्मों के सत्य को पाया जाए। इस उद्देश्य से एक के बाद एक धर्मों का वे अनुष्ठान करते चले। उस समय उनसे जो कुछ कहा जाता, वे ध्यानपूर्वक करते और तब तक उस संप्रदाय विशेष में रहते, जब तक कि उस संप्रदाय के विशिष्ट आदर्श का साक्षात्कार न कर लेते। फिर कुछ वर्षों के बाद दूसरे संप्रदाय की साधना में लग जाते। जब वे सारे संप्रदायों का अनुभव कर चुके, तब वे इस निष्कर्ष तक पहुँचे कि ये समस्त ठीक हैं। किसी में भी वे दोष न देख सके, हर संप्रदाय एक ऐसा मार्ग है, जिससे लोग एक केंद्र पर ही पहुँचते हैं। और तब उन्होंने घोषणा की, 'यह कितने गौरव की बात है कि यहाँ इतने अधिक मार्ग हैं, क्योंकि यदि एक ही मार्ग होता, तो शायद वह केवल एक ही व्यक्ति के अनुकूल होता। इतने अधिक मार्ग होने से हर एक व्यक्ति को 'सत्य' तक पहुँच सकने का अधिक से अधिक अवसर सुलभ है। यदि मैं एक भाषा के माध्यम से नहीं सीख सकता, तो मुझे दूसरी भाषा आजमानी चाहिए।' और इस तरह उन्होंने प्रत्येक धर्म को आशीष दिया।

मैं जिन विचारों का संदेश देना चाहता हूँ, वे सब उनके विचारों को प्रतिध्वनित करने की मेरी अपनी चेष्टा है। इसमें अपना निजी कोई भी मौलिक विचार नहीं; हाँ, जो कुछ असत्य अथवा बुरा है, वह अवश्य मेरा ही है। पर हर ऐसा शब्द, जिसे मैं तुम्हारे सामने कहता हूँ और जो सत्य एवं शुभ है, केवल उन्हीं की वाणी को झंकार देने का प्रयत्न मात्र है। प्रोफेसर मैक्स मूलर द्वारा लिखित उनके जीवन चरित्र को तुम पढ़ो। [1]

बस उन्हीं के चरणों में मुझे ये विचार प्राप्त हुए। मेरे साथ और भी अनेक नवयुवक थे। मैं केवल बालक ही था। मेरी उम्र रही होगी सोलह वर्ष की, कुछ और तो मुझसे भी छोटे थे और बड़े भी थे लगभग एक दर्जन रहे होंगे, हम सब। और हम सबने बैठकर यह निश्चय किया कि हमें इस आदर्श का प्रसार करना है और चल पड़े हम लोग न केवल उस आदर्श का प्रसार करने के लिए, बल्कि उसे और भी व्यावहारिक रूप देने के लिए। तात्पर्य यह कि हमें दिखलाना था हिंदुओं की आध्यात्मिकता, बौद्धों की जीव-दया, की क्रियाशीलता, एवं मुस्लिमों का बंधुत्व, और ये सब अपने व्यावहारिक जीवन के माध्यम द्वारा। हमने निश्चय किया,'हम एक सार्वभौमिक धर्म का निर्माण करेंगे अभी और यहाँ ही। हम रुकेंगे नहीं।

हमारे गुरु एक वृद्धजन थे, जो एक सिक्का भी कभी हाथ से नहीं छूते थे। बस जो कुछ थोड़ा सा भोजन दिया जाता था, वे उसे ही ले लेते थे, और कुछ गज कपड़ा अधिक कुछ नहीं। उन्हें और कुछ स्वीकार करने के लिए कोई प्रेरित ही न कर पता था। इन तमाम अनोखे विचारों से युक्त होने पर भी वे बड़े अनुशासन कठोर थे, क्योंकि इसी ने उन्हें मुक्त किया था। भारत का संन्यासी आज राजा का मित्र है, उसके साथ भोजन करता है, तो कल वह भिखारी के साथ है और तरु-तले सो जाता है। उसे प्रत्येक व्यक्ति से संपर्क स्थापित करना है, उसे सदैव चलते ही रहना है। कहते हैं 'लुढ़कते पत्थर पर काई कहाँ ?'अपने जीवन के गत चौदह वर्षों में कभी भी मैं एक स्थान पर एक साथ तीन माह से अधिक रुका नहीं, सदा भ्रमण ही करता रहा। हम सबके सब यही करते हैं

इन मुट्ठी भर युवकों ने इन विचारों को और उनमें निकलने वाले सभी व्यावहारिक निष्कर्षों को अपनाया। सार्वभौमिक धर्म, दिनों से सहानुभूति और ऐसी ही बातें, जो सिद्धांतत: बड़ी अच्छी हैं, पर जिन्हें चरितार्थ करना आवश्यक था। उसी का बीड़ा उन्होंने उठाया। तब वह दु:ख का दिन आया, जब हमारे कोई मित्र न थे। सुनता भी कौन, हम कुछ विचित्र सी विचारधारा के छोकरों की बात ? कोई नहीं। कम से कम भारत में तो छोकरों की कोई बात कोई नहीं। जरा सोचो बारह लड़के लोगों को विशाल महान सिद्धांत सुनाए, और कहैं कि वे इन विचारों को जीवन में चरितार्थ करने के लिए कृतसंकल्प हैं ! हाँ, सभी ने हँसी की, हँसी करते-करते वे गंभीर हो गए - हमारे पीछे पड़ गए - उत्पीड़न करने लगे। बालकों के माता-पिता हमें क्रोध से धिक्कारने लगे, और ज्यों-ज्यों लोगों ने हमारी खिल्ली उड़ाई, त्यों-त्यों हम और भी दृढ़ होते गए।

तब इसके बाद एक भयंकर समय आया, मेरे लिए और अन्य बालक मित्रों के लिए भी। पर मुझ पर तो और भी भीषण दुर्भाग्य छा गया था। एक ओर थी मेरी माता और भ्रातागण। मेरे पिता जी का अवसान हो गया और हम लोग असहाय, निर्धन रह गए, इतने निर्धन कि हमेशा फाकाकशी की नौबत आ गयी। कुटुंब की एकमात्र आशा मैं था, जो थोड़ा कमाकर कुछ सहायता पहुँचा सकता। मैं दो दुनियाओं की संधि पर खड़ा था। एक ओर थी मेरी माता और भाइयों के भूखों मरने का दृश्य, और दूसरी ओर थे इन महान पुरुष के विचार, जिनसे मेरा ख्याल था भारत का ही नहीं, सारे विश्व का कल्याण हो सकता है और इसलिए जिनका प्रचार करना, जिन्हें कार्यान्वित करना अनिवार्य था। इस तरह मेरे मन में महीनों यह संघर्ष चलता रहा। कभी तो मैं छ: छ:, सात सात दिन और रात निरंतर प्रार्थना करता रहता। कैसी वेदना थी वह ! मानो मैं जीवित ही नरक में था। कुटुंब के नैसर्गिक बंधन और मोह अपनी ओर खींच रहे थे। मेरा बाल्य ह्रदय भला कैसे अपने इतने सगों का दर्द देखते रहता ? फिर दूसरी ओर कोई सहानुभूति करने वाला भी नहीं था ! बालक की कल्पनाओं से सहानुभूति करता भी कौन, ऐसी कल्पनाएँ जिनसे औरों को तकलीफ ही होती ? मुझसे भला किसकी सहानुभूति होती ? किसी की नहीं सिवा एक के।

उस एक की सहानुभूति ने मुझे आशीष दिया, मुझमें आशा जगायी। वह स्त्री थी। हमारे गुरुदेव - ये महा संन्यासी बाल्यावस्था में ही विवाहित हो गए थे। युवा होने पर जब उनकी धर्मप्रवणता अपनी चरम सीमा पर थी, वे आए एक दिन अपनी पत्नी को देखने। बाल्यावस्था में विवाह हो जाने के उपरांत युवावस्था तक उन्हें परस्पर मेल-मिलाप करने का अवसर मिला था। पर जब वे बड़े हो चुके, तो आए एक दिन अपनी पत्नी के पास, और बोले, "देखो, मैं तुम्हारा पति हूँ, इस देह पर तुम्हारा अधिकार है। पर मैं कामुक जीवन बिता नहीं सकता, यद्यपि मैंने तुमसे ब्याह कर लिया। मैं अब सब कुछ तुम्हारे फैसले पर छोड़ता हूँ।" उन्होंने रोते हुए कहा, "प्रभु तुम्हें आशीष दें। क्या तुम्हारी यह धारणा है कि मैं तुम्हें अध:पतित करने वाली स्त्री हूँ ? बन सकेगा तो मैं तुम्हारी सहायक ही होऊँगी। जाओ, अपने कार्य में अग्रसर होओ।"

ऐसी स्त्री थीं वे ! पति अग्रसर होते गए और अंत में संन्यासी बन गए, अपनी राह पर बढ़ते गए और यहां पत्नी अपने ही स्थान से उन्हें सहायता पहुँचाती रहीं, जहाँ तक बन सका, वहाँ तक। और बाद में जब वे पुरुष आध्यात्मिक दिग्गज बन गए, तब वे आयीं। सचमुच में वे ही उनकी प्रथम शिष्य हुई और उन्होंने अपना शेष जीवन उनकी देह की सुरक्षा और सेवा करने में बिताया। उन्हें तो कभी यह पता भी न चला कि वे जी रहे हैं। मर रहे हैं अथवा कुछ और। बोलते-बोलते कई बार तो ऐसे भावविष्ट हो जाते कि जलते अंगारों पर बैठने पर भी उन्हें कोई खयाल न होता ! हां जलते अंगारों पर !! अपने शरीर की ऐसी सुधि उन्हें भूल जाती।

तो, वे ही एक ऐसी देवी थीं, जिन्हें उन बालकों की विचारधारा से कुछ सहानुभूति थी लेकिन उनके पास शक्ति ही क्या थी, वे तो हम लोगों से भी निर्धन थीं। पर चिंता नहीं - हम लोग तो धारा में कूद पड़े थे। मेरा विश्वास था कि इन विचारों से भारत अधिक ज्ञानोदभासित होगा तथा भारत के सिवा और भी अनेक देशों और जातियों का उससे कल्याण हो सकेगा। तभी यह अनुभव हुआ कि इन विचारों का नाश होने देने के बदले तो कहीं यह श्रेयस्कर है कि कुछ मुट्ठी भर लोग स्वयं अपने को मिटाते रहैं ! क्या बिगाड़ जाएगा यदि एक माँ न रही, यदि दो भाई मर गए तो ? यह तो करना ही होगा। बिना बलिदान के कोई भी महत कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। कलेजे को बाहर निकालना होगा और निकालकर पूजा की वेदी पर उसे लहूलुहान चढ़ा देना होगा और। तभी कुछ महान की उपलब्धि होती है। और भी कोई दूसरा मार्ग है क्या? अभी तक तो किसी को मिला नहीं। में तुम लोगों से यही प्रश्न करता हूँ। कितना मूल्य व चुकाना पड़ा है किसी सफल कार्य का ? कैसी वेदना - कैसी पीड़ा ! प्रत्येक सफल क्रिया के पीछे कैसी भयानक यातना की कहानी है ! हर जीवन में ही ! तुम तो उसे जानते हो, तुममें से प्रत्येक व्यक्ति।

और बस इसी तरह हम लोग, हम बालकों का समृह चलता गया-बढ़ता गया। हमारे निकट के लोगों ने चारों ओर से हमें जो दिया, वह थी गाली और ठोकर। द्वार-द्वार पर हमें भोजन की भिक्षा माँगनी पड़ी, कहीं हमें दुत्कार मिली तो कहीं घुड़की। किस्सा यह कि सब अनाप-शनाप ही हमें दिया गया। यहाँ एक टुकड़ा मिला, तो वहाँ दूसरा। आखिर हमें एक घर भी मिल गया-टूटा-फूटा,खंडहर, जिसमें रहते थे फुफकारते काले नाग। पर हमें उसे लेना ही पड़ा सबसे सस्ता जो था न ! हम उसमें गए और जाकर वहाँ रहे।

इस तरह कुछ वर्ष काटे, सारे भारत का भ्रमण किया किया और यही कोशिश की कि हमारे विचार और आदर्श को एक निश्चय स्वरूप प्राप्त हो जाय। दस वर्ष बीत गए प्रकाश की किरण न दिखी। और भी दस वर्ष बीते! हज़ारों बार निराशा आयी। पर इन सबके बीच हरदम आशा की एक किरण बनी रही, और वह था हम लोगों का उत्कट पारस्परिक सहयोग, हमारा आपसी प्रेम। आज मेरे साथ लगभग सौ साथी हैं स्त्री और पुरुष। वे ऐसे हैं कि यदि मैं एक बार शैतान भी बन जाऊँ, तो भी वे ढाढ़स बाँधते हुए कहेंगे, 'अरे अभी हम हैं ! हम तुम्हें कभी न छोड़ेगे !' और सचमुच यही बड़ा सौभाग्य है। सुख में, दु:ख में, अकाल में दर्द में, कब्र में स्वर्ग में, नरक में जो मेरा साथ न छोड़े, सच वही मेरा मित्र है। ऐसी मैत्री क्या हँसी मजाक है ? ऐसी मैत्री से तो मानव को मोक्ष तक मिल सकता है। यदि इस प्रकार हम प्रेम कर सकें, तो उससे मोक्ष प्राप्त होता है। यदि ऐसी भक्ति आ जाय, तो वही सारी ध्यान-धारणाओं का सार है। तुमको किसी देवता का पूजन करने कि जरूरत नहीं, यदि इस दुनिया में तुममें वह भक्ति है, वह श्रद्धा है, वह शक्ति है, वह प्रेम है। और उन मुसीबत के दिनों में वही बात हम सब में थी। और उसी के बल पर हिमालय से कन्याकुमारी तथा सिंधु से ब्रह्मपुत्र तक हमने भ्रमण किया।

इन युवकों का समूह भ्रमण करता रहा। शैनै: शैनै: लोगों का ध्यान हमारी ओर खिंचा; ९० प्रतिशत उसमें विरोधी थे, बहुत ही अल्पांश सहायक था। हम लोगों की एक सबसे बड़ी कमी थी और वह यह कि हम सब युवा थे, निर्धन थे और युवकों की सारी अनम्रता हममें मौजूद थी। जिसको जीवन में खुद अपनी में खुद अपनी राह बना-कर चलना पड़ता है, वह थोड़ा अविनीत हो ही जाता है; उसे कोमल, नम्र और मिष्टभाषी बनने का अधिक अवकाश कहाँ ? 'मेरे सज्जनो, मेरी देवियो' इत्यादि संबोधनों का उसे अवसर कहाँ ? जीवन में तुमने सदैव यह देखा होगा। वह तो एक अनगढ़ हीरा है, उसमें चिकनी पालिश नहीं। वह मामूली सी डिबिया में एक रत्न है।

और हम लोग ऐसे थे। 'समझौता नहीं करेंगे', यही हमारा मूलमंत्र भी था यह आदर्श है इसे चरितार्थ करना ही होगा यदि हमें राजा भी मिले, तो भी हम उससे अपनी बात कहे बिना न रहेंगे, भले ही हमें प्राणदंड क्यों न दिया जाय ! और यदि कृषक मिला, तो उससे भी यही कहेंगे। अत: हमारा विरोध होना स्वाभाविक था।

पर ध्यान रखो, जीवन का यही अनुभव है। यदि सुचमुच तुम पर-हित के लिए कटिबद्ध हो, तो सारा ब्रह्मांड भले ही तुम्हारा विरोध करे, तुम्हारा बाल भी बाँका न होगा। यदि तुम नि:स्वार्थ और ह्रदय के सच्‍चे हो, तो तुम्हारे अंतर में निहित परमात्मा की शक्ति के समक्ष, ये सारी विघ्न-बाधाएँ क्षार क्षार हो जाएगी। वे युवक बस ऐसे ही थे। प्रकृति की गोद से पवित्रता और ताजगी लिए हुए शिशुओं के समान थे। हमारे गुरुदेव ने कहा, "मैं प्रभु की वेदी पर उन्हीं फूलों को चढ़ाना चाहता हूँ, जिनकी सुगंध अभी तक किसी ने नहीं ली, जिन्हें अपनी अँगुलियों से किसी ने स्पर्श नहीं किया।" उन महात्मा के ये शब्द हमें जीवन देते रहे। उन्होंने कलकत्ता की गलियों से समेटे हुए इन बालकों के जीवन की सारी भावी रूप-रेखा देख ली थी। जब वे कहते, "देखना इस लड़के को, उस लड़के को, उस लड़के को आगे चलकर क्या होगा वह," तब लोग उन पर हँसते थे। पर उनकी आस्था और विश्वास अडिग था। कहते, "तो मुझसे माँ (जगन्माता) ने कहा है। मैं निर्बल हूँ सही, पर जब वह ऐसा कहती है - उससे भूल हो नहीं सकती तो अवश्य ऐसा ही होगा।"

इस तरह चलता रहा। दस साल बीत गए, पर प्रकाश न मिला। इधर स्वास्थ्य दिन पर दिन क्षीण होता चला। शरीर पर इनका असर हुए बिना नहीं रह सकता : कभी रात के नौ बजे एक बार खा लिया, तो कभी सवेरे आठ बजे ही एक बार खाकर रह गए, तो दूसरी बार दो रोज़ के बाद खाया तीसरी बार तीन रोज़ के बाद और एचआर बार नितांत रूखा-सूखा, शुष्क, नीरस भोजन ! अधिकांश समय पैदल ही चलतें,बर्फीली चोटियों पर चढ़ते,कभी कभी तो दस दस मिल पहाड़ पर चढ़ते ही जाते केवल इसलिए कि एक बार का भोजन मिल जाय। बतलाओं भला, भिखारी को कौन अपना अच्छा भोजन देता है?फिर सूखी रोटी ही भारत में उनका भोजन है और कई बार तो वे सूखी रोटियाँ बीस बीस, तीस तीस दिन के लिए इकट्ठी करके रख ली जाती हैं, तब उनसे षडरस व्यंजन का उपभोग संपन्न होता है ! एक बार का भोजन पाने के लिए मुझे द्वार-द्वार भीख माँगते फिरना पड़ता था। और फिर रोटी ऐसी कड़ी कि खाते खाते मुँह से लहू बहने लगता था। सच कहूँ, वैसी रोटी से तुम अपने दाँत तोड़ सकते हो। मैं तो रोटी को एक पात्र में रख देता और उसमे नदी का पानी उड़ेल देता था। इस तरह महीनों गुजरने पड़े, निश्चय ही इन सबका प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ रहा था।

फिर मैंने सोचा कि भारत को तो अब देख लिया चलो अब किसी और देश को आज़माया जाय। उसी समय तुम्हारी धर्म-महासभा होने वाली थी और वहाँ भारत से किसी को भेजना था। मैं तो एक खानाबदोश सा था, पर मैंने कहा, "यदि मुझे भेजा जाय, तो मैं जाऊँगा। मेरा कुछ बिगड़ता तो है नहीं, और अगर बिगड़े भी, तो मुझे परवाह नहीं। " पैसा जुटा सकना बड़ा कठिन था। पर बड़ी खटपट के बाद रुपया इकट्ठा हुआ और वह भी मेरे किराए मात्र का। और बस, मैं यहाँ आ गया दो एक महीने पहले ही। क्या करता न किसी से जान, न पहचान। बस सड़कों पर यहाँ-वहाँ भटकने लगा।

अंत में धर्म-महासभा का उद्घाटन हुआ और मुझे बड़े सदय मित्र मिले, जिन्होंने मेरी खूब सहायता की। मैंने थोड़ा परिश्रम किया, धन जमा किया। और दो पत्र निकाले। इसके बाद मैं इंग्लैंड गया और वहाँ भी काम किया। साथ ही साथ अमेरिका में भी भारत के हित का कार्य साधता रहा।

भारत विषयक मेरी योजना का जो विकास और केंद्रीकरण हुआ है, वह इस प्रकार है : मैं कह चुका हूँ कि संन्यासी लोग वहाँ किस प्रकार अपना जीवन यापन करते हैं, किस प्रकार द्वार द्वार भीख माँगते हैं और बिना किसी शुल्क के धर्म को उन तक पहुँचाते हैं। बहुत हुआ तो बदले में एक रोटी का टुकड़ा ले लिया यही कारण है कि भारत का अदने से अदना व्यक्ति भी धर्म की ऐसी उच्च प्रेरणाएँ अपने साथ रखता है। यह सब इन्हीं संन्यासियों के कार्य का फल है। तुम उससे प्रश्न करो, "अंग्रेज लोग कौन हैं ?" उसे पता नहीं। शायद उत्तर मिल जाय," वे उन रक्षसों की संतान हैं, जिनका वर्णन उन ग्रंथों में है। है न यही ?""तुम्हारा शासक वर्ग कौन है ?""हमें पता नहीं। ""शासन क्या है ?""हमें पता नहीं। "पर तत्त्वज्ञान वे जानते हैं। जो उनकी असली कमजोरी है, वह है इस पार्थिव जीवन संबंधी व्यावहारिक बौद्धिक शिक्षा का अभाव। ये कोटि-कोटि मानव इस संसार से परे के जीवन के लिए सदा प्रस्तुत रहते हैं और यही क्या उनके लिए पर्याप्त नहीं ? नहीं कदापि नहीं। उन्हें कहीं अच्छे रोटी के टुकड़े की जरूरत है, उनकी देह को कहीं अच्छे कपड़े के टुकड़ों की आवश्यकता है। विकट समस्या यही है कि यह अच्छा रोटी का टुकड़ा और अच्छा कपड़ा इन गए-बीते कोटि कोटि मानवों को प्राप्त हो कहाँ से ?

पहले मैं तुमसे कह दूँ कि उन लोगों के लिए बड़ी आशा है, क्योंकि वे संसार में सबसे अधिक नम्र व्यक्ति हैं। पर कार अथवा भीरु नहीं। जब उन्हें लड़ना होता है, तो दैत्यों की भाँति लड़ते हैं। अंग्रेजों के सर्वोत्तम सैनिक भारत के किसानों से ही भर्ती किए गए हैं। मृत्यु का उनके सामने कोई महत्व नहीं। उनका मत है "बीसों बार तो मेरी मौत हो चुकी और सैकड़ों बार अभी मौत होनी है। इससे क्या ? "पीछे हटना उन्हें नहीं आता। भावुकता के वे कायल नहीं, पर योद्धा वे उच्चतम कोटि के हैं।

स्वभाव से खेती उन्हें प्यारी है। तुम उन्हें लूट लो,उनको कत्ल कर दो, उन पर कर लगा दो, तुम उनके साथ कुछ भी करो,पर जब तक तुम उन्हें अपनें धर्म-पालन की स्वतंत्रता देते हो, तब तक वे बड़े नम्र बने रहैंगे, बड़े ही शांत और चुप। वे कभी औरों के धर्म से नहीं भिड़ते। 'हमारे देवताओं की पूजा करने की हमें स्वतंत्रता दो, फिर चाहे और सब कुछ छीन लो' यही उनका रुख है। अंग्रेजों ने जब उस मर्मस्थल को छुआ, तो प्रारंभ हो गया उपद्रव ! सन ५७ की गदर का यही सच्चा कारण था। वे धार्मिक दमन सह न सके। मुस्लिम सरकारें बस इसलिए उड़ा दी गयी कि उन्होंने भारत के धर्म को छूने की चेष्टा की।

यह अगर छोड़ दो, तो वे बड़े शांतिप्रिय, अवाचाल, नम्र और सर्वोपरि, दुर्व्यसनों से दूर होते हैं। उनमें मादक - पेय का अभाव उन्हें किसी भी देश की साधारण जनता से बहुत ऊँचा उठा देता है। भारत के दरिद्रों के जीवन की उत्मता की तुलना तुम अपने देश की बस्तियों के जीवन से नहीं कर सकते। बस्ती का अर्थ निस्संदेह दरिद्रता है, पर भारत में दरिद्रता के मानी पाप, गंदगी, व्यभिचार और दुर्व्यसन तो कभी नहीं होते। अन्य देशों में व्यवस्था ही ऐसी है की केवल व्यभिचारी और आलसी लोग ही दरिद्र बने रहैं। यहाँ दरिद्रता का कारण ही नहीं, जब तक कि मनुष्य निपट मूढ़ अथवा मक्कार न हो, ऐसा मूढ़ जिसे नागरिक जीवन के ऐश्वर्य का मोह हो। ऐसे लोग गाँव में कभी न जाएँगे। उनका कहना है,'हम तो जीवन के मनोरंजनों, रँगरेलियों के बीच रहते हैं, भोजन हमें दिया ही जाना चाहिए। पर हमारे देश की बात ऐसी नहीं। वहाँ के दरिद्र सवेरे से दिन डूबे तक पसीना बहाते हैं और अंत में कोई अन्य व्यक्ति आकर उनके हाथ से उनकी रोटी छीन ले जाता है - उनके बच्चे भूखे तड़पते रहते हैं। भारत में करोड़ों टन गेहूँ पैदा किया जाता है,पर शायद ही एक दाना ग़रीब के मुँह में जाता हो ! वे तो ऐसे निकृष्ठ अन्न पर पलते हैं, जिसे तुम अपनी चिड़िया को भी न खिलाओं।

सचमुच ऐसा कोई कारण नहीं कि इतने अच्छे, इतने पवित्र लोगों को ऐसी मुसीबतें झेलनी पड़े-ये बेचारे ! हम बहुत सुनते हैं इन कोटि-कोटि दीन-दु:खियों की दु:खभरी कहानियाँ, वहाँ की पतिता स्त्रियों के दर्द-भरे किस्से। पर कोई तो आए उनका दु:ख दूर करने, उनका दर्द बाँटने ! बस मुख से कहते भर हैं, 'तुम्हारा दर्द तभी दूर हो सकता है, जब तुम वह न रहो जो कि आज हो। हिंदुओं को मदद देना व्यर्थ है। 'ऐसा कहनेवाले जातियों के इतिहास को नहीं जानते। भारत उस दिन बचेगा ही कहाँ, जिस दिन उसकी प्राणदायिनी शक्तियों का अंत हो जाएगा जिस दिन वहाँ के निवासी अपना धर्म बदल देंगे, जिस दिन वे अपनी संस्थाओं का रूपांतर कर देंगे ! उस दिन तो वह जाति ही विलीन,हो जाएगी, तुम सहायता करोगे किसकी ?

एक बात और भी हम सबको सीख लेनी है और वह यह कि हम सचमुच में किसी को सहायता नहीं दे सकते। हम एक दूसरे के लिए भला क्या कर सकते हैं ? तुम अपने जीवन में बढ़ते जाते हो और मैं अपने जीवन में। अधिक से अधिक यह संभव है कि मैं तुमको थोड़ा सा सहारा देकर आगे बढ़ा दूँ, जिससे अंततोगत्वा तुम भी अपनी मंजिल पर पहुँच जाओ इस पूरी जानकारी के साथ कि सारी दुनिया का गंतव्य एक ही है राहैं अलग-अलग। यह वृद्धि क्रमिक होती है। ऐसी कोई राष्ट्रीय सभ्यता नहीं, जिसे पूर्ण कहा जा सके। सभ्यता को थोड़ा सा सहारा दे दो, और वह अपने गंतव्य तक पहुँच जाएगी। उसे बदले का प्रयास न करो। छीन लो किसी देश से उसकी संस्थाएँ, उसके रीति-रिवाज़, उसके चाल-चलन, फिर बच ही क्या रहेगा भला ? इन्हीं तंतुओं से तो राष्ट्र बँधा रहता है।

पर तभी विदेशी पंडित महोदय आते हैं, "देखो, इन हज़ारों वर्षों की संस्थाओं और रीतियों को तुम तिलांजलि दो और गले लगाओ हमारे इस नए मूढ़ता के टीन-पाट (tin pot) को और मौज करो। " यह सब मूर्खता है !

हमें आपस में मदद तो कर्णी होगी, पर एक क़दम इसके भी आगे जाना होगा। मदद करने में सबसे अधिक जरूरी यह है कि हम स्वार्थ के परे हो जाय। 'मैं तुम्हें तभी सहायता दूँगा, जब तुम मेरे कहने के अनुसार बर्ताव करोगे, अन्यथा नहीं। ' क्या सहायता है ?

और इसलिए यदि हिंदू तुम्हें आध्यात्मिक सहायता पहुँचाना चाहता है,तो वह पूर्ण निरपेक्ष, संपूर्ण नि:स्वार्थ बनकर ही अग्रसर होगा। मैंने दिया और बस,बात वहीं खत्म हो गयी मुझसे दूर चली गयी। मेरा दिमाग, मेरी शक्ति, मेरा सर्वस्व जो कुछ भी देना था, मैंने दे दिया इसलिए दे दिया कि देना था, औरे बस। मैंने देखा है, जो दुनिया के आधे लोगों को लूटकर अपना घर भरते हैं, वे 'बुतपरस्त के धर्मपरिवर्तन' के लिए बीस हजार डॉलरों का दान देते हैं ! किसलिए ? बुतपरस्त के सुधार के लिए अथवा ही आत्मा के उत्कर्ष के लिए ? जरा सोचो तो सही !

और पापों के प्रतिशोध का देवता अपना काम कर रहा है। हम अपनी ही आँखों में धूल झोंकना चाहते हैं। पर हमारे ह्रदय में वह परम सत्य परमात्मा विद्यमान है। वह कभी नहीं भूलता। उसे हम धोखा नहीं दे सकते। उसकी आँखों में धूल नहीं डाली जा सकती। जहाँ कहीं सच्ची दानशीलता की प्रेरणा मौजूद है, उसका असर तो होगा ही-चाहे वह हजार वर्षों के बाद ही क्यों न हो। भले ही रुकावट डालो, पर वह जाग उठेगा,और उल्कापात की तरह ज़ोर से उमड़ पड़ेगा। हर ऐसी प्रेरणा, जिसका उद्देश्य स्वार्थपूर्ण है, स्वार्थ-प्रेरित है, अपने लक्ष्य पर कभी न पहुँच सकेगी भले-ही तुम सारे अखबारों को उसकी चमकीली तारीफों से रँग डालो, भले ही विराट् जनसमूहों को तुम उसका जयजयकार करने के लिए खड़ा कर दो।

मैं इस पर गर्व नहीं कर रहा हूँ। पर देखो, मैं कह रहा था उन बालकों की कहानी। आज भारत में ऐसा गाँव नहीं, ऐसा पुरुष नहीं, ऐसी नारी नहीं, जिसे उनके कार्य का पता न हो, जिसका आशीर्वाद उन पर न बरसात हो। देश में ऐसा अकाल नहीं, जिसकी दाढ़ में घुसकर ये बालक रक्षा का काम न करें, अधिक से अधिक लोगों को न बचायेँ। और वही लोगों के हृदय को बेधता है। दुनिया उसे जान जाती है। इसलिए जब कभी संभव हो, सहायता कारों, पर अपने उद्देश्य का ध्यान रखो। अगर वह स्वार्थ है, तो न औरों को उससे लाभ होगा न तुमको ही। यदि वह स्वार्थ-शून्य है, तो जिसको दी जा रही है, उससे लिए कल्याणप्रद होगी, और तुम्हारे ऊपर भी अमोघ आशीर्वादों की वर्षा करेगी। यह बात उतनी ही निश्चित है, जितना कि तुम्हारा जीवित होगा। प्रभु को धोखा नहीं दिया जा सकता; कर्म के नियम को धोखे में नहीं डाला जा सकता।

अत: मेरी योजना है, भारत के इस जनता-समूह तक पहुँचने की। मान लो, इन तमाम गरीबों के लिए तुमने पाठशालाएँ खोल भी दीं, तो भी उनको शिक्षित करना संभव न होगा। कैसे होगा ? चार बरस का बालक तुम्हारी पाठशाला में जाने की अपेक्षा अपने हल-बखर की ओर जाना अधिक पसंद करेगा। वह तुम्हारी पाठशाला न जा सकेगा। यह असंभव है। आत्मरक्षा निसर्ग की पहली जन्मजात-प्रवृत्ति है। पर यदि पहाड़ मुहम्मद के पास नहीं जाता, तो मुहम्मद पहाड़ के पास पहुँच सकता है। मैं कहता हूँ कि शिक्षा स्वयं दरवाजे- दरवाजे क्यों न जाय ? यदि खेतरी का लड़का शिक्षा तक नहीं पहुँच पाता, तो उससे हल के पास, या कारखाने में अथवा जहाँ भी हो, वहीं क्यों न भेट की जाय ? जाओ उसकी साथ उसकी परछाई के समान। ये जो हजारों और लाखों की संख्या में संन्यासी हैं, जो जनता को आध्यात्मिक भूमिका पर शिक्षा प्रदान कर रहे हैं, वे क्यों न बौद्धिक भूमिका पर भी शिक्षा प्रदान करें ? क्यों न वे जनता से कुछ इतिहास तथा अन्यान्य विषय की बातें करें ? हमारे कान ही हमारे सबसे प्रभावशाली शिक्षक हैं। हमारे जीवन के सर्वोतम सिद्धांत वे ही हैं, जो हमने कानों से अपनी माताओं से सुने थे। पुस्तकें तो बाद में आयीं। पुस्तकीय ज्ञान की भला क्या बिसात ? कानों के जरिए ही हमें सर्जनात्मक सिद्धांतों की उपलब्धि होती है। फिर,ज्यों ज्यों उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगेगी, वे तुम्हारी पुस्तकों के भी पास आने लगेंगे। पर पहले उसी तरह मेरा यही विचार है।

मैं यह बता देना चाहता हूँ कि मैं इन संन्यासी संप्रदायों में बहुत अधिक विश्वास नहीं। उनमें महान गुण हैं,और उनमें दोष भी महान हैं। संन्यासियों और गृहस्थों के बीच पूर्ण संतुलन अपेक्षित है। लेकिन भारत की सारी शक्ति संन्यासी संप्रदायों ने हथिया ली है। हम उच्चतम शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं। संन्यासी राजकुमार से भी बढ़कर है। भारत का ऐसा कोई सम्राट नहीं जो गैरिक वस्त्रधारी संन्यासी के समक्ष आसन ग्रहण करे वह अपना आसन छोड़कर खड़ा ही रहता है। इतनी अधिक शक्ति, फिर वह कितनी ही अच्छे लोगों के हाथ में क्यों न हो, अच्छी नहीं यद्यपि मैं जानता हूँ कि लोगों की सुरक्षा इन संन्यासी संप्रदायों के द्धारा पर्याप्त मात्रा में हुई है। ये संन्यासी पुरोहित प्रपंच और ज्ञान के बीच में खड़े हुए हैं। सुधार और ज्ञान के ये केंद्र हैं। इनका वही स्थान है,जो यहूदियों में पैगंबर सदा पुरोहितों के विरुद्ध प्रचार करते रहे है, कुसंस्कारों निकाल भगाने की प्रेरणा देते है। बस, यही हाल भारत में हुआ। जो भी हो पर इतनी शक्ति वहाँ ठीक नहीं, इससे भी अच्छी रीतियों का अनुसंधान किया जाना चाहिए। पर कार्य उसी मार्ग से किया जा सकता है, जिसमें बाधाएँ कम हों। भारत की सारी राष्ट्रीय आत्मा सन्यास पर ही केंद्रित है। तुम भारत में जाओ और गृहस्थ के रूप में कोई धर्म-संदेश कहो। हिंदू मुँह फेरकर चले जाएंगे। पर यदि तुमने संसार त्याग दिया है, तब तो वे कहैंगे, "हाँ,यह ठीक है, उन्होंने संसार तज दिया है। वे सच्चे हैं ; वे वही करना चाहते हैं; जो कहते हैं। "मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि यह एक प्रचण्ड शक्ति का सूचक है। और हमें जो करना है, वह यह कि हम इसका रूपांतर कर दें उसे दूसरा आकार दे दें। परिव्राजक संन्यासियों के हाथों में सन्निहित यह अपरिमित शक्ति रूपांतरित हो जानी चाहिए, जिससे जनसमूह उदबुद्ध हो, उन्नत हो।

इस तरह कागज़ों पर तो हमनें अच्छी योजना तैयार कर ली, पर साथ ही मैंने उसे आदर्शवाद के क्षेत्र से ग्रहण किया था। तब तक वे मेरी योजना शिथिल और आदर्श के रूप में थी। पर समय की गति के साथ वह स्थिति और सुस्पष्ट होती गयी। उसको सक्रिय बनाते समय मुझे उसके दोष आदि दिखायी पड़ने लगे।

भौतिक भूमिका पर उसे क्रियान्वित करते हुए मैंने क्या खोज की ? पहले, हमें ऐसे केंद्रों की ज़रूरत है, जहाँ संन्यासी को ऐसी शिक्षा की रीतियों से अवगत कराने की व्यवस्था हो सके। उदाहरणार्थ, मैं अपने एक मनुष्य को केमरा लेकर बाहर भेज देता हूँ-पर इसके पहले उसके बारे में सिखा सेना भी तो आवश्यक है। तुम देखोगे कि भारत का हर आदमी बिल्कुल निरक्षर है, इसलिए शिक्षा देने के लिए विशाल केंद्रों की ज़रूरत है। और इन सबका तात्पर्य क्या हुआ?- धन ! आदर्श की भूमिका पर से तुम दैनिक कार्य-प्रणाली पर उतर आते हो। मैंने तुम्हारे देश में चार वर्ष श्रम किया और इग्लैंड में दो वर्ष। और मैं कृतज्ञ हूँ कि कुछ मित्रों ने मुझे सहारा देकर बचा लिया। आज की मंडली में उनमें से एक उपस्थित हैं। कुछ अमेरिका और अंग्रेज मित्र मेरे साथ भारत भी गए और हमारा कार्य बड़े ही प्रारंभिक रूप में आरंभ हुआ। कुछ अंग्रेज आए संप्रदाय में सम्मिलित हुए। एक बेचारे ने तो बड़ा परिश्रम किया और भारत में उसका देहांत हो गया। वहाँ अभी एक अंग्रेज सज्जन और देवी हैं, जिन्होंने अवकाश ग्रहण किया है। उनके पास कुछ साधन हैं। उन्होंने हिमालय में एक केंद्र का सूत्रपात किया है और वे बालकों को शिक्षा देते हैं। मैंने उनके जिम्मे अपना एक पत्र 'परबुद्ध भारत' दे दिया है, जिसका एक प्रति मेज़ पर रखी हुई है। वहाँ पर वे लोग जनता को शिक्षा देते तथा उनके बीच कार्य करते हैं। मेरा एक केंद्र कलकत्ता में है। स्वभावत: राजधानी से ही सारे आंदोलन प्रारंभ होते हैं, क्योंकि राजधानी ही तो राष्ट्र का ह्रदय है। सारा रक्त पहले ह्रदय में ही आता है और वहाँ से सब जगह विपरित होता है। अत: सारा धन, सारी विचारधाराएँ, सारी शिक्षा, सारी आध्यात्मिकता पहले राजधानी में ही पहुँचेगी और फिर वहाँ से सर्वत्र प्रसारित होगी।

मुझे यह बताते हर्ष होता है कि हमने प्रगल्भ रूप में प्रारम्‍भ कर दिया है। ठीक इसी तरह मैं नारियों के लिए भी आयोजना करना चाहता हूँ। मेरा सिद्धांत है कि प्रत्येक अपनी सहायता तो दूर की सहायता है। भारतीय स्त्रियाँ हैं, अंग्रेज स्त्रियाँ हैं और मुझे आशा है, अमेरिका स्त्रियाँ भी इस कार्य को हाथ में लेने के लिए आगे आएंगी। उनके आरंभ करते ही मैं अपना हाथ अलग कर लूँगा। नारी पर पुरुष क्यों शासन करे ? तथैव, पुरुष पर नारी क्यों शासन करे ? प्रत्येक स्वतंत्र है। यदि कोई बंधन है, तो वह है प्रेम का। नारियाँ स्वयं अपने भाग्य का विधान कर लेंगी पुरुष जो कुछ उनके लिए कर सकते हैं, उससे कहीं उत्तम रूप से। यह समस्या नारी के प्रति अनौचित्य, वह केवल इसलिए कि पुरुषों ने स्त्रियों के भाग्य-विधान का दायित्व के लिया। और मैं ऐसी गलत के साथ प्रारंभ भीं करना चाहता, क्योंकि यही गलती फिर समय के साथ बड़ी होती जाएगी इतनी बड़ी कि अंततोगत्वा उसके अनुपात को सँभाल सकना असंभव हो जाएगा। अत: यदि स्त्रियों के कार्य में पुरुषों को लगाने की भूल मैंने की, तो स्त्रियाँ कभी भी उससे मुक्त न हो सकेंगी वह एक रस्म ही बन जाएगी। पर मुझे एक बार अवसर मिला है। मैंने तुमको अपने गुरुदेव की धर्मपत्नी की बात बतायी है। हमारी उन पर अटूट श्रद्धा है। वे कभी भी हम पर शासन नहीं करतीं। अत: यह मार्ग पूर्णत: सुरक्षित है। कार्य के इस अंश को अभी संपन्‍न होना है।



[1] अंग्रेजी भाषा में लिखित 'रामकृष्ण : हिज लाइफ ऐंड सेइंग्स' जो पहले १८९६ में लंदन से प्रकाशित हुई और जिसका पुनर्मुद्रण १९५१ में अद्वैत आश्रम ने किया ।


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